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आग चाहिए / मुरारी मुखोपाध्याय / कंचन कुमार
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मुहब्बत में चान्द मत बनो
बन सको तो सूरज बनकर आओ,
मैं उससे उत्ताप लेकर
अन्धेरे के जंगल में आग लगा दूँगा ।
मुहब्बत में नदी मत बनो
बन सको तो बाढ़ बनकर आओ,
मैं उस आवेग को बहाकर
निराशा के बान्ध तोड़ दूंगा ।
मुहब्बत में फूल मत बनो
बन सको तो वज्र बनकर आओ,
उसकी गड़गड़ाहट को सीने में सँजोए
मैं लड़ाई की ख़बरें दिशाओं में फैलाऊँगा ।
मुहब्बत में पंछी मत बनो
बन सको तो तूफ़ान बनकर आओ,
उस ताक़त के बूते पर मैं
पाप का महल ढहा दूँगा ।
चान्द, नदी, फूल, तारे, पँछियों पर
कुछ दिन के बाद गौर करेंगे
अन्धेरे में आख़िरी लड़ाई अभी बाक़ी है
अभी आग चाहिए हमारी इस कुटिया में ।
1975
मूल बांग्ला से अनुवाद : कंचन कुमार