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आज़ादी / सूर्यपाल सिंह
Kavita Kosh से
भूख केवल पेट की ही नहीं
आज़ादी की भी होती है।
पिंजरे में बंदी पंछी
सामने रखे भोेजन की ओेर
देखता तक नहीं।
तुम उसे मजबूर करते होे
कि वह कुछ खा-पी
अपने केा ज़िन्दा रखे
क्योंकि तुम्हारे मुन्ने
उससे खेलने को बेताब हैं
ज़रा उसे पिंजरे से बाहर कर देखो।
पंछी हो या मनुश्य
सभी को आज़ादी प्रिय है।
आज़ादी छीनकर
रोटियाँ देने की कोषिष
रेत में नाव चलाना है
विकासषील संस्कृति को
रट्टू तोता बनाना है।