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आजोबा / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर

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बचपन में
माँ के स्तनों के अलावा
आँख मूंदकर भी जिन्हें पहचानता था
वे थे दो हाथ

उनकी गर्माहट,
खुरदुरापन, गंध
इकलौती थी दुनिया में
वे माँ के हाथ नहीं थे
पर लगता था
माँ ने व्यस्तता के कारण ही उन्हें गढ़ा
उन हाथों में कुछ ज़्यादा ही माँ-पन भर दिया

उन हाथों ने मेरे गीले लंगोट बदले
थपकियाँ देते की पहरेदारी
कोई बुरा सपना
कभी ख़लल नहीं डाल पाया
नींद में

उनकी उंगली पकड़ चलते हुए
जाना कि पाँव आगे बढ़ाने पर ही
नजदीक आती हैं चीज़ें

मेरी अबोध उँगलियों को
अपनी हथेली में थाम
पट्टी की काली मिट्टी में
हल की तरह चलाते पेम

कितना आश्चर्य
अंकुर की तरह अक्षरों का फूटना
भाषा का मेरे हाथों उगना

वे हाथ
दिन भर इसी फ़िक्र में रहते
कि आसपास की कौन-सी चीज़ें बटोरकर
नए खेल, खिलौने पैदा किए जाएँ

किसी डंडे में
टीन का गोल ढक्कन ठोंककर
बनाते गाडियाँ ,
कपड़े की चिन्दियाँ
पत्थर पर लपेट-लपेट कर गेंद
नर्म और ठोस एक साथ :
उछलने से उकताने वाली गेंद

नाली में भीगकर पोतड़ा बन जाने तक
एक और गेंद बनाने में जुटे हाथ

दशहरे का मेला हो
या अनंत चौदस की झाँकियाँ
घनी भीड़ के पैरों में
कभी गुम नहीं होने दिया

वे हाथ मुझे कंधों पर बिठा लेते
मैं आजोबा की पगड़ी की तरह दिखाई देता