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आज की ज़िन्दगी / महेन्द्र भटनागर

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ज़िन्दगी हँसती हुई मुरझा गयी ;
चांद पर बदली गहन आ छा गयी !

यामिनी का रूप सारा हर लिया
कामिनी को हाय विधवा कर दिया !

आदमी की सब बहारें छीन लीं,
उपवनों की फूल-कलियाँ बीन लीं !

फट गया मन लहलहाते खेत का,
बेरहम तूफ़ान आया रेत का !

उर-विदारक दीखता है हर सपन,
सब तरफ़ से चाहनाओं का दमन !

रीति बदलीं आधुनिक संसार की,
राह सारी मुड़ गयी हैं प्यार की !

सामने बस स्वार्थ का जंगल घना
दुर्ग जिसमें डाकुओं का है बना !

मौत की शहनाइयाँ बजती जहाँ,
रंग-बिरंगी अर्थियाँ सजती जहाँ !

लेटने को हम वहाँ मजबूर हैं,
वेदना से अंग सारे चूर हैं !

इस तरह लँगड़ी हुई है ज़िन्दगी
लड़खड़ाकर गिर रही लकवा लगी !