भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज देखा है / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
आज देखा है
मनुज को ज़िन्दगी से जूझते,
संघर्ष करते !
वंचना की टूटती चट्टान की आवाज़
कानों ने सुनी है,
और पैरों को हुआ महसूस
धरती हिल रही है !
आज मन भी
दे रहा निश्चय गवाही
दु:ख-पूर्णा-रात काली
अब क्षितिज पर गिर रही है !
भूमि जननी को हुआ कुछ भास
उसकी आस का संसार
नूतन अंकुरों का
उग रहा अंबार !
सूखे वृक्ष के आ पास
बहती वायु कुछ रुक
कह रही संदेश ऐसा
जो नया,
बिलकुल नया है !
सुन जिसे खग डाल का
अब चोंच अपनी खोलने को
हो रहा आतुर,
प्रफुल्लित,
फड़फड़ाकर कर पर थकित !
छतनार यह काला धुआँ
अब दीखता हलका
नहीं गाढ़ा अंधेरा है
वही कल का !
1951