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आज सुबह से / कुमार रवींद्र
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आज सुबह से
घूम रही हैं बाहर चंपा के बिरवे पर
तीन तितलियाँ
तीनों का रंग है वासन्ती
गोकि हवाएँ धूलभरी हैं
उधर घटाएँ कुछ मटमैली
छत के ऊपर आ पसरी हैं
चंपा के पत्ते हिलते हैं
लगता जैसे चढ़ीं पेड़ पर
चपल मछलियाँ
जुडवाँ बहनों जैसी हैं ये
पीतबरन तितलियाँ हमारी
पता नहीं किस कल्पवृक्ष पर
इनने पिछली रात गुज़ारी
चंपा के नीचे
बैठी हैं गई-शाम से
बौराई खूँखार बिल्लियाँ
इधर हमारी खिड़की पर भी
मकड़ों ने जाले बीने हैं
उड़ीं तितलियाँ - पहुँचीं छत पर
टूटे हुए इधर जीने हैं
ख़बर मिली है
बरखा होगी अगले दिन तक
चमकीं सारी रात बिजलियाँ