आत्मकथ्य / धर्मेन्द्र चतुर्वेदी
यह प्रारंभ
नहीं है निमेश भर, मायापाश का
और न ही अंतिम मुक्ति का प्रश्वास;
यह तिमिर है
चिरसंचित,चिरकालीन
उस दिन से
जब वे मुझे कैद कर गए थे
रहस्य-गर्भ स्पंदित कारागारों में ;
तब रुद्ध-सिंहा मेरी आत्मा
बच निकली थी,
वातायन वेदना के दौरान
उन सघनित लोहे की सलाखों से
बनकर
दुनिया की सबसे खूबसूरत कविता |
दीर्घ-कालीन पलायित वह
भटकती है
सघन वनों में,
रेगिस्तानों में,
बर्फीले प्रदेशों में,
झंझावातों में,
तप्तदग्धा--शीतकम्पित
अद्यतन|
बहुत मुश्किल होता है
उन घनीभूत वेदना के क्षणों में,
चालक-विहीन,पतवार-विहीन
अनियंत्रित नौका में गमन ;
फिर कवितायें लिखना
नहीं है आधार-स्तम्भ;
नहीं है नियंत्रणकारक;
या नहीं है स्थिरता का प्रयास
यह प्रयास है
केवल भूल जाने का,
कारागार
और उसमें बन्दित
निरीह शव|