मनुष्य जो मानस की संतान है.
मनुष्य जो मन की सत्ता के कारण मनुष्य है.
मनुष्य जिसे मनुष्य रह कर कभी चैन नहीं आ सका
या देवत्व उसका लक्ष्य बिन्दु रहा है या राक्षत्व
यह आत्महारी विदग्धता क्यों है?
पूर्ण मानव किसी पूर्णत्व या देवत्व से कम नहीं?
मनुष्य मन की सीमाओं में कभी राम ही नहीं सका .
मान्यताओं को मानता नहीं,
ज्ञातव्य को जानता नहीं.
स्वयं को पहचानता नहीं .
मानव का परावर्तन परिवर्तित परिवर्तन चाहिए.
परिवर्तन केवल ह्रदय परिवर्तन की प्रक्रिया है.
अपने ही महत्तम, बृहत्तम और न्यूनतम स्वरुप की,
क्योकि
हम स्वयम अपने द्वारा ही आखेटित बाघ हैं.
बाधाएं बनाई हुई हैं , पथ तो सारे निर्बाध हैं.
आत्मा में विकारों का आगमन
और विकीरण ही,
संसार का कारण है.
आत्म संवरण व् आत्म रमण से
उसे रोक देना मोक्ष का कारण है.
आत्महारी विदग्धता और मानवीय मूल्यांकन की
संदिग्धता निः शेष हो.