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आदमी और कलूटा हुआ / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
कहाँ कर पाया सीधी रीढ़
आदमी घर का टूटा हुआ
जहाँ भी गया वहीं हो गया
माल बाज़ारु लूटा हुआ।
कर्ज़ की किस्त, ब्याज की मुश्त
मुफ़लिसी का मारा मन सुस्त
चित्त चिन्ताओं की चौपाल
क्षुधातर हर अभाव, भूचाल
सहन करता जो अल्पविराम
धान ओखल का कूटा हुआ।
समय की आदमख़ोर सुरंग
कर गई सारी हुमस अपंग
ज़िन्दगी कर डाली बदहाल
दुश्मनी ने फैलाए जाल
कचहरी ने दौड़ाई देह
आदमी और कलूटा हुआ।