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आदमी धुएँ के हैं / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
ताँबे का आसमान,
टिन के सितारे,
गैसीला अन्धकार,
उड़ते हैं कसकुट के पंछी बेचारे,
लोहे की धरती पर
चाँदी की धारा
पीतल का सूरज है,
राँगे का भोला-सा चाँद बड़ा प्यारा,
सोने के सपनों की नौका है,
गन्धक का झोंका है,
आदमी धुएँ के हैं,
छाया ने रोका है,
हीरे की चाहत ने
कभी-कभी टोका है,
शीशे ने समझा
कि रेडियम का मौका है,
धूल ‘अनकल्चर्ड’ है,
इसीलिए बकती है-
- ‘ज़िन्दगी नहीं है यह- धोखा है, धोखा है !’