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आदमी हूँ / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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आदमी हूँ, इसलिए हर आदमी को प्यार करता हूँ।

प्यार से जब जब मिला, जिससे मिला
आदमी हर एक झुकता ही गया।
और जब सौंपा उसे विश्वास तो
वह स्वयं ऊपर सदा उठता गया।
मैं इसी से आदमी का सब तरह सत्कार करता हूँ।
आदमी हूँ, इसलिए हर आदमी को प्यार करता हूँ॥1॥

मैं समझ पाया नहीं, करना कठिन
क्यों यहाँ विश्वास रे इंसान का!
दिख रहा है साफ मुझको तो यहाँ
रूप हर इंसान में भगवान का।
मैं इसी से आदमी को पूजना स्वीकार करता हूँ।
आदमी हूँ, इसलिए हर आदमी को प्यार करता हूँ॥2॥

आदमी का हो नहीं विश्वास यदि
आदमी ही पर, बड़ा अपमान है।
गिर गयी इंसानियत गर इस कदर
तो भला इंसान से हैवान है।
किन्तु मैं यह मानने से हर तरह इन्कार करता हूँ।
आदमी हूँ, इसलिए हर आदमी को प्यार करता हूँ॥3॥

लग रहा ऐसा मुझे कुछ, आदमी
को रहा खुद पर नहीं विश्वास है।
इसलिए भय और शंका पर लिखा
जारहा यह आज का इतिहास है
यदि यही है सभ्यता तो मैं न अंगीकार करता हूँ।
आदमी हूँ, इसलिए हर आदमी को प्यार करता हूँ॥4॥

आदमी औ’ आदमी में भेद क्या,
एक-से आँसू, एक-सा हास है।
एक-सी लगती सभी को भूख है,
एक-सी लगती सभी को प्यास है।
इसलिए मैं भेद की दीवार कब स्वीकार करता हूँ।
आदमी हूँ, इसलिए हर आदमी को प्यार करता हूँ॥5॥

बात कुछ यों है कि हर एक आदमी
प्यार का भूखा रहा है हर समय।
किन्तु कुछ मजबूरियाँ ऐसी यहाँ
खोल वह पाता नहीं अपना हृदय।
इसलिए हर एक से मैं प्यार का व्यवहार करता हूँ।
आदमी हूँ, इसलिए हर आदमी को प्यार करता हूँ॥6॥

कह रहा कण कण प्रकृति का है स्वयं
और मैं भी आरहा खुद देखता।
आदमी से ही धरा आबाद यह
औ’ वही है स्वर्ग का भी देवता।
इसलिए मैं आदमी को सृष्टि का शृंगार कहता हूँ।
आदमी हूँ, इसलिए हर आदमी को प्यार करता हूँ॥7॥

14.8.56