आदमी होने की पहचान / रामदरश मिश्र
मैं लिखता हूँ तो
कोई साहित्य-सिद्धांत मेरे सामने नहीं होता,
होता है अपना और आसपास का जिया हुआ जीवन
और उस जीवन से निकली हुई भाषा
आपका साहित्य शास्त्र
अपने को इसके अनुकूल पाता है तो पा ले,
नहीं तो मसीहा बने रहने के लिए
बंध्या-बहस करते रहिए दूसरों की भाषा में
मेरी रचनाएँ
जैसी भी हैं, मेरी हैं
वे चुपचाप पहुँचती रहेंगी उन तक
इनमें जिनका दर्द बोलता है,
जिनका राग गूँजता है,
जिनका संघर्ष कसमसाता है,
जिनके सपनों के पंख फड़फड़ाते हैं,
जिनके आसपास के खुले विस्तार में व्याप्त
ऋतुओं की विविध रंग-कथाएँ हैं
आप पता नहीं कल यहाँ होंगे,
लेकिन मेरी रचनाएँ तो कल भी पहुँचती रहेंगी
जहाँ पहुँचना होगा,
क्योंकि वे शुष्क सिद्धांत नहीं हैं,
अंतर के छोटे-बड़े गान हैं
यानी कि आदमी के आदमी होने की पहचान हैं।
-30.12.2013