आदिम परिदृश्य / लुईज़ा ग्लुक / श्रीविलास सिंह
तुम पैर रख रही हो अपने पिता के ऊपर, टोका मेरी माँ ने,
और निश्चय ही मैं खड़ी थी घास की एक पट्टी के बीचो-बीच,
जो कटी थी इतने करीने से कि यह हो सकती थी क़ब्र मेरे पिता की,
यद्यपि नहीं था लगा यह बताने को कोई पत्थर ।
तुम पैर रख रही हो अपने पिता के ऊपर, दोहराया उसने,
इस बार अधिक तेज़ आवाज़ में, जो मुझे लगने लगा था विचित्र,
क्योंकि मर चुकी थी वह स्वयं भी, डॉक्टरों तक ने यह किया था स्वीकार ।
मैं थोड़ा सा हटी एक ओर, जहाँ
समाप्त होते थे मेरे पिता और शुरू होती थी मेरी माँ ।
क़ब्रिस्तान मौन था। बह रही थी हवा पेड़ों से होती हुई;
मैं सुन सकती थी, रुदन का स्वर कुछ दूरी पर,
और उसके परे विलाप कर रहा एक श्वान ।
काफ़ी हद तक स्थगित थी ये ध्वनियाँ। मैं यहाँ आई किस तरह यह नहीं स्मरण मुझे, सोचा मैंने,
यद्यपि यह हो सकता है एक क़ब्रिस्तान मात्र मेरे मस्तिष्क में; सम्भवतः यह एक पार्क था, अथवा
यदि पार्क नहीं तो
एक बाग या लता मण्डप, सुगन्धित, मुझे समझ आया, गुलाबों की सुगन्धि से,
हवा में भरा था चिन्तामुक्त, प्रसन्न जीवन, जीवन जीने की मधुरता,
जैसा कि कहते हैं । किसी क्षण
यह महसूस किया मैंने, कि मैं थी अकेली ।
कहाँ गए बाक़ी सब लोग,
मेरे चचेरे भाई और बहन, कैटलिन और अबीगैल ?
अब तक मन्द पड़ने लगा था प्रकाश । कहाँ गई कार
जो थी प्रतीक्षारत हमें घर ले जाने को ?
मैं तब तलाशने लगी कोई विकल्प । मैंने महसूस की
अपने भीतर बढ़ रही अधीरता, लगभग, मैं कहूँ तो चिन्ता ।
अन्त में मैंने देखी एक ट्रेन कुछ दूरी पर,
रुकी हुई, शायद, झाड़ियों के पीछे, और कण्डक्टर
दरवाज़े के सहारे खड़ा पी रहा था सिगरेट ।
मुझे न छोड़ जाना, चिल्लाई मैं, दौड़ती हुई
ऊपर से बहुत से भूखण्डों के, बहुत सी माँओं और पिताओं के ऊपर से —
मुझे न छोड़ जाना, मैं चिल्लाई, आख़िर में पहुँचकर उसतक,
मैडम, वह बोला, इशारा करता ट्रैक की ओर,
निश्चय ही आप जान गई होंगी कि यह अन्त है, इसके आगे नहीं जाता रास्ता ।
उसके शब्द कठोर थे, यद्यपि उसकी आँखें थी दयालु;
इससे मैं हुई उत्साहित थोड़ा और प्रयत्न करने को अपने बारे में,
पर वे पीछे की ओर तो जाते हैं, मैंने कहा, और मैंने उनकी मज़बूती की ओर किया
संकेत, जैसे कि उन्हें करनी हो ऐसी अनेक यात्राएँ भविष्य में।
आप जानती हैं, कहा उसने, हमारा काम कठिन है; करना पड़ता है हमें सामना
तमाम दुखों और निराशाओं का ।
उसने देखा मेरी ओर कुछ अधिक खुलेपन से ।
मैं भी था कभी तुम्हारे जैसा, उसने कहा, प्रिय थी मुझे भी अशान्ति ।
अब मैंने कहा यूँ जैसे हो वह मेरा पुराना मित्र;
तुम्हारा क्या, मैंने पूछा, तुम तो स्वतन्त्र हो जाने को,
क्या नहीं है तुम्हारी इच्छा घर जाने की,
फिर से शहर देखने की,
यही है मेरा घर, कहा उसने,
शहर- शहर वहाँ है जहाँ मैं हो जाता हूँ अदृश्य ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : श्रीविलास सिंह
और लीजिए, अब पढ़िए अँग्रेज़ी में मूल कविता
Louise Glück
Aboriginal Landscape
You’re stepping on your father, my mother said,
and indeed I was standing exactly in the center
of a bed of grass, mown so neatly it could have been
my father’s grave, although there was no stone saying so.
You’re stepping on your father, she repeated,
louder this time, which began to be strange to me,
since she was dead herself; even the doctor had admitted it.
I moved slightly to the side, to where
my father ended and my mother began.
The cemetery was silent. Wind blew through the trees;
I could hear, very faintly, sounds of weeping several rows away,
and beyond that, a dog wailing.
At length these sounds abated. It crossed my mind
I had no memory of being driven here,
to what now seemed a cemetery, though it could have been
a cemetery in my mind only; perhaps it was a park, or if not a park,
a garden or bower, perfumed, I now realized, with the scent of roses —
douceur de vivre filling the air, the sweetness of living,
as the saying goes. At some point,
it occurred to me I was alone.
Where had the others gone,
my cousins and sister, Caitlin and Abigail?
By now the light was fading. Where was the car
waiting to take us home?
I then began seeking for some alternative. I felt
an impatience growing in me, approaching, I would say, anxiety.
Finally, in the distance, I made out a small train,
stopped, it seemed, behind some foliage, the conductor
lingering against a doorframe, smoking a cigarette.
Do not forget me, I cried, running now
over many plots, many mothers and fathers —
Do not forget me, I cried, when at last I reached him.
Madam, he said, pointing to the tracks,
surely you realize this is the end, the tracks do not go further.
His words were harsh, and yet his eyes were kind;
this encouraged me to press my case harder.
But they go back, I said, and I remarked
their sturdiness, as though they had many such returns ahead of them.
You know, he said, our work is difficult: we confront
much sorrow and disappointment.
He gazed at me with increasing frankness.
I was like you once, he added, in love with turbulence.
Now I spoke as to an old friend:
What of you, I said, since he was free to leave,
have you no wish to go home,
to see the city again?
This is my home, he said.
The city — the city is where I disappear.