भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदि विद्रोही / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बँधे हैं सब
अपनी-अपनी विचारधाराओं से
पूँजीवाद या साम्राज्यवाद
सरकारी या गैर-सरकारी
व्यापारी या नौकरी-पेशा
या स्वतंत्र पेशेवर भी
किसी-न-किसी रूप में
किसी विचारधारा का समर्थन करते हैं
प्राणिमात्र की,
इस धरा की,
इस पर रहने वालों की
कोई आवाज नहीं बनता
सीमाएँ बाँटती हैं लोगों को
धरा के अंदर तो कोई सीमा नहीं
जल अंदर-ही-अंदर
कहीं भी चला जाता है
क्या कह सकते हो उसे
किसी खास मुल्क का पानी?
हवाआंे ने कब बनवाये हैं पारपत्र
दहाड़ती फिरती हैं यहाँ-वहाँ
बिजलियों ने कब माँगी आज्ञा
किसी शासनाध्यक्ष से
चमकती है वो तो
अपने पूरे शबाब से
मेघ भी तो बिना रुके
इधर-उधर जाते हैं
जहाँ भी चाहता है
वहीं दिल हलका कर आते हैं
पक्षियों ने भी भरी परवाजें
आसमानों के पार
मछलियों ने भी किया
देशों-देशांतरों को पार
हर वृक्ष की जड़
कहीं दूसरे देश में फैली है
बिना सीमाएँ हटाए
विश्वग्राम का राग बेकार है
हर एक हो बस
इस धरती का वासी
यही उसकी पहचान हो
यही सम्मान हो
हो हर एक के पास रोटी
हो हर एक के पास मकान
कमाने का साधन
आये बसंत सबके जीवन में
चमके सूरज इस विश्व में
उमड़ें मेघ काले
बरसें रिम-झिम
हरे हों लहलहायें खेत
भरें खलिहान
आग हो सबके पास
घर से जाएँ
तो लौटकर घर आयंे
कोई इंतजार ना हो
लौटकर
न आने वालों का
मैं चाहता हूँ सबके लिए
क्या ऐसी चाहत विद्रोह है?
अगर है तो मैं आदि विद्रोही हूँ
और हमेशा रहूँगा।