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आधी ज़िन्दगी / अदिति वसुराय / लिपिका साहा
Kavita Kosh से
कॉफ़ी हाउस जानता है उनके साम्राज्य का विस्तार
मर्गारिता और मध्य यामिनी जानती हैं, उनके ताज में कितने नगीने —
पुस्तक मेले के दिन-रातों ने उनको चन्दनवन
दिखाया हमेशा से ।
तख़्त को नज़रअन्दाज़ किया था इसलिए,
श्रावण के प्रपात में था उनका अबाध आवागमन
अश्वारोही विहीन पल्टन लेकर, उन्होंने अक्षर शासन
किया नियमित ।
कोलकाता में खिलाया पारिजात
देवता के हाथों से खोलकर पढ़ी थी चिट्ठी
उनके ही आदेश पर, नीरा ने उपेक्षा करना सीखा है भ्रू-पल्लव ।
और सप्तडिंगा बहता गया आड़ियल खाँ के
मुहाने पर ।
सम्राट का आसन उनको ही शोभे;
‘कोई’, ’कोई’ नहीं ....
वह एकक, अनिवार्य, स्वयं
सुनील गंगोपाध्याय ।
मूल बांगला से अनुवाद : लिपिका साहा