लालू पंडित गाँव छोडकर,
पहली बार शहर में आए,
भारी भीड़ हर तरफ देखी
कुछ चकराए, कुछ घबराए,
जिसको देखो कुछ भूला-सा,
भागमभाग चला जाता है
चलने में मानुस मानुस से,
टकराता है, भिड़ जाता है।
है सैकड़ों दुकाने जिनमें,
ठूँस-ठूँस सामान भरा है
दोनों ओर सड़क से सटकर,
पटरी पर भी माल धरा है।
साइकिल, रिक्शा, ताँगा, आटो
दौड़ रहीं कारें, बस, ठेले
इतना शोर, रोशनी ऐसी
जैसे लगे हुए सौ मेले।
भरने लगा धुआँ साँसों में,
चलना हुआ दो कदम भारी
कहाँ गाँव की खुली हवाएँ,
कहाँ शहर की मारामारी।
पंडित जी मन ही मन बोले
क्यों इस तरह अशांति छा रही
कुदरत कितनी दूर हो रही,
आबादी की बाढ़ आ रही।