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आम बौराये हैं / कौशल किशोर
Kavita Kosh से
इस बार फिर
बगीचे में आम बौराये हैं
श्रमशील आंखों की हंसी
मक्के के लावे की तरह फूट निकली है
कोयल की कूक
गौरैये की फुर्र-फुर्र इधर-उधर
निर्जन गूंज निकला है
अपने दायरे से बाहर
वसन्त लाल-पीले परिधान पहने
छा रहा है सब पर
फैल रहा है धरती पर
आम बौराये है
बगीचे को अभी बहुत कुछ करना है
बहुत-बहुत भरना है
कुर्बानियों की राह में चल निकलना है
मौसम की साज़िश सामने खड़ी है
वे कितने बहादुर हैं जो डगमगाते नहीं
उन्हें आदमी का ख़्याल है
उसके स्वाद का ख़्याल है
आम बौराये हैं
तेज लू, हवा और आंधियों के बीच
लदी हुई डालियों के साथ
अपनी शाखों पर नये-नये पल्लव लिए
अपने नव सर्जन को बचाते
पेड़ और बगीचे रहेंगे
फतह आखिरकार उनके हिम्मत की होगी
इस बार फिर बगीचे में
आम बौराये हैं।