आराध्य मेरे / भावना जितेन्द्र ठाकर
शनै शने हृदय रथ पर विराजमान हो रहे प्रियतम सुनो न!
समुन्दर की गोद में डूबते आफ़ताब को मैंने रोक रखा है,
हल्की-सी रोशनी में जी भर तुम्हें देखने आई हूँ।
शाम के कपोल से कत्थई रंग चुरा लाई हूँ,
आगे कर हथेली पियु हल्की-सी चुम्बन की मोहर लगाने आई हूँ।
बाँध ले मेरे दामन से अपनी अनामिका ले चलूँ पहाडों के गेह तले,
बो लेंगे आलिंगन तलहटी की मिट्टी को कुरेदकर,
इश्क के निशान छोड़ जाएँगे।
आने वाली पीढ़ी को ज्ञात तो रहे,
दो प्रेमियों ने विरह को अलविदा कहते चुना था
युग्मनी लम्हों को।
सारंगी पर छेड़ दो तुम भैरवी या मालकोष,
उस लय संग ताल मिलाते मैं नृत्य करते मगन बनूँ,
इस बेला पर बहते लम्हों को कैद कर लेंगे स्मृतियों की संदूक में।
रात की ठयोढ़ी पर झिलमिलाते पिक बू करते
चाँद को स्टेच्यू कह दे चलो, इस शाम को यहीं रोक लें,
बेशक मिलन में बाधा ड़ालते आगे बढ़ रही
रात रुक जाएगी प्रेमियों के कहने पर।
कत्थई शाम के साये तले उन ठहरे हुए
लम्हों को गवाह रख हम इतिहास रचेंगे प्रीत का,
एक दूजे की आँखों में डूबकर।
हृदय रथ से थाम कर तुम्हें स्थापित करना है,
ताउम्र के लिए रूह के आलय में,
आराध्य मेरे तुम्हें देवता बनाने आई हूँ।