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आरे, खेलइत छलिअइ सुपति मौनिया / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

बेटी अभी खेलने में ही व्यस्त थी। उसने नहीं सोचा था कि मुझे इतनी जल्दी ससुराल जाना पड़ेगा। इसी बीच उसके ससुराल जाने का समय निश्चित हो जाता है और वह ससुराल को चल पड़ती है। वह पितृगृह के लोगों से बिछुड़ने के दुःख में ससुर और पति को निर्मोही तक कह देती है। विदा के समय पिता के रोने से यमुना नदी बह जाती है, माता के पटोर मोंग जाते हैं, भैया का दुपट्टा भी भींग जाता है, लेकिन भाभी का हृदय उसके प्रति कठोर है, इसलिए वह रोती भी नहीं। पिता ने आश्वासन दिया कि तुम्हें रोज बुलवाऊँगा। माता ने छह महीने पर तथा भाई ने यज्ञ-उत्सव में बुलाने का वचन देकर उसे सांत्वना दी, लेकिन भाभी ने कहा कि तुम जल्द दूर जाओ। मामी और ननद का आपसी मनमुटाव सनातन है और इसका कारण मनोवैज्ञानिक है।

आरे, खेलइत छलिअइ सुपति मौनिया, अचके<ref>अचानक</ref> में आबि गेल<ref>आ गया</ref> नेयार<ref>विदाई का दिन</ref>।
आरे, कोने निरमोहिया दिनमा गुनैलकै<ref>गुणन करके ठीक किया</ref>, कौने निरमोहिया लेने<ref>लिये हुए</ref> जाय।
ससुर निरमोहिया राम दिनमा गुनैलकै, साम निरमोहिया लेने जाय॥1॥
आरे, किनका के लोर<ref>आँसू</ref> सेॅ जमुन बह गेलै, किनका के भिजल पटोर।
किनका के लोर दुपट्टा भीजि गेलै, किनका के हिरदा कठोर॥2॥
बाबा के लोर सेॅ जमुना बहि गेलै, अम्माँ के भींजल पटोर।
भैया के लोरे दुपट्टा भींजि गेलै, भौजी के हिरदा कठोर॥3॥
के रे कहै बेटी नित दिन मँगायब, कौने कहै छव मास।
कौने बोलाबै काज परोजन<ref>यज्ञादि के अवसर पर; विशेष काम के पड़ने पर</ref>, कौने कहै दूरि जाउ॥4॥
बाबा कहै बेटी नित दिन मँगायब, अम्माँ कहै छव मास।
भैया बोलाबै काज परोजन, भौजी कहै दूरि जाउ॥5॥
मिलि लेहो, मिलि लेहो सखि हे सहेलिनी, फेर कब होयत मिलान॥6॥

शब्दार्थ
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