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आलाप / निर्मल शुक्ल
Kavita Kosh से
बिखरे दाने धूप के ।
खोल गया
कोई चुपके से
ताने-बाने सूप के ।
नील निलय से
चली भैरवी
बहकी-बहकी जाए
इन्द्रधनुष की
गलबहियों में
फूली नहीं समाए
अरुण हो गए
नेह निमंत्रण
मनुहाने नवरूप के ।
रेख सुवर्णा
गलियारे में
दे गई शुभसंवाद
उर्मिल हो गए
मालविकों के
जामुनिया उन्माद
अर्थ बावरी
दिवासावरी
जाने रूप अनूप के ।
कंचन पीकर
मचले बेसुध
अमलतास के गात
ओस हो गई
पानी-पानी
जब तक समझे बात
रही बाँचती
कुल अभियोजन
अनजाने प्रारूप के
बिखरे दाने धूप के ।