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आवाजाही / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
बहते पानी और चट्टान के बीच
तैरती एक रोशनी में,
हवा और सुगन्ध के बीच उड़ते
कम्पित स्वर में,
पाँवों और ज़मीन के बीच
आवेग भरती थिरकन में,
सभी का हिस्सा है कुछ न कुछ
स्मृतियाँ मुस्करा रही हैं
रातों की पर्तो के भीतर जुगनू जैसी,
शताब्दियों की गहरायी में
डूबी पड़ी है नींद,
एक असहज-सा
पुराना मकान
अभी तक
दुपहर में सीझा हुआ
जाने कब से खड़ा है
ग़ौर-आबाद
गिरने-गिरने को
इस सबके बीच
न जाने किस दुनिया से कितना कुछ लगातार
जाने-अनजाने
शामिल होता रहता है हमारी दुनिया में
और इस दुनिया से जाने कब
कितना कुछ और किसी लोक जा पहुँचता है
अजब-सी आवाजाही लगी है
बदहवास, बेतरतीब, बेवजह
फिर भी
जीवन से लबरेज़
उत्कंठित
जिज्ञासु...