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आवारा अलकें / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
सिर से ढलते ही आँचल के
बिखर गईं आवारा अलकें।
बिजली बनकर मुखड़ा दमका
या चन्दा बादल में चमका ।
या मुग्धा का सोया यौवन
जाग उठा है आँखें मलके ।
खुशबू से तर सभी दिशाएँ
चन्दनगन्धी हुईं हवाएँ
मधुर-मधुर करते हैं बातें
कँगना करवट बदल-बदलके।
उगते उर में मादक सपने
हुए पराए भी, अब अपने
देख रहे हैं दूर मोड़ तक
नयन पनीले मचल-मचलके ।
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