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आशा के छींटे / आरती 'लोकेश'

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अभी उमस थी, अभी घुटन थी,
बिजली कौंधी, अँधियारी छाई।
घिर-घिर आई लो कारी बदरिया,
अहा! छम-छम बूँद बरसी आईं।

रिमझिम फुहार, अभी थी ठंडक,
बादल छँटे, उफ! तीक्ष्ण किरन।
तपन, चुभन, फिर वही प्रतीक्षा,
कब कृपा करेगा नभ गहन ??

पल-पल बदलते इस रूप का,
क्या भेद कभी पा पाएगा ?
कौन मित्र और कौन है शत्रु
यहीं उलझा रह जाएगा।

कोई साथ नहीं, सुनसान डगर है,
चहुँओर जंग का घातक शोर।
राह अड़े ठूँठ, कंटक, खंजर हैं,
रात अंध घनी, कब होगी भोर ?

विकट घड़ी और कठिन परीक्षा,
बुद्धि, विवेक, साहस और धैर्य,
बल व कर्म मिली जो शिक्षा,
अचल, अटल यही तेरा आश्रय।

भय, आक्रोश नहीं तेरा धर्म,
आशा, विश्वास, सोपान तंत्र।
उत्थान - यह जीवन का मर्म,
विजय प्राप्ति का मूल-मंत्र।

जीव अंत, थक-हार थमा तो,
सदियाँ गुज़रें, तू चला-चल।
पर उपकारी संत कहाँ वो,
शुद्ध हृदय लें पी हला-हल।

जग कल्याणी तेरी भावना,
होगा तूफ़ानों से भी सामना।
नाते-रिश्तों से हो टकराना,
अग्नि समुद्र पार है जाना।

तू न मौसम की बाट जोह,
न हरितिमा का पंथ निहार।
संयम कर मन की उहा-पोह,
गंतव्य देगा निज पथ बुहार।

लक्ष्य प्राप्ति उत्सव आएगा,
सब पीड़ा-कष्ट भुला जाएगा।
युग से दीर्घ उस तपन को,
तू स्वयं अधिक लघु पाएगा।

इस ताप की जो वाष्प उठेगी,
नवीन जलद निर्माण करेगी।
नभ कब तक भार उठाएगा?
आखिर तो जल बरसाएगा ।
 
देखो-
फिर बदली घिर-घिर आई हैं,
प्रतिष्ठित मानवता हुई हैं।
उल्लास हर्ष सुख की बौछारें,
चुभन–तपन अब कहीं नहीं है।