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आशा के भग्न भवन में / विष्णुकुमारी श्रीवास्तव ‘मंजु’
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आशा के भग्न भवन में, प्राणों का दीप जलाये।
उत्सुक हो स्वागत-पथ पर, बैठी थी ध्यान लगाये॥
उठती तरंग-माला में, शरदिन्दु-किरण फँसती थी।
हिलती, मिलती, इठलाती, पगली सरिता हँसती थी॥
थे नील गगन में तारे, मुक्ता का तार पिरोते।
मेरी सूनी कुटिया में, आँखों से झरते सोते॥
है स्नेह-सिन्धु उफनाता, जर्जर है तरणी मेरी।
क्या कभी लगेगी तट पर, जब छाई रात अँधेरी॥
प्रियतम! क्या भूल सकूँगी, सूनेपन में तुम आये।
सुरभित पराग को लेकर, कलियों के दल बिखराये॥