भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आसमाँ / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
Kavita Kosh से
मैं आसमाँ ले के आया था
तुमने बाहों को फैलाया ही नहीं
मैं रातभर सितारे बनता रहा
तुमने पलकों को उठाया ही नहीं
क्या शिकायत कि शाम नहीं देखी
तुमने खिड़की का परदा हटाया ही नहीं
कोई चेहरा मायूस नहीं था यहाँ
तुमने किसी के लिए मुस्कुराया ही नहीं
सर तो हजार झुके थे शहर में
किसी सर को तुमने झुका समझा ही नहीं