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आस्तीन का लहू / शलभ श्रीराम सिंह
Kavita Kosh से
अँधेरा
जो हमारे चतुर्दिक
व्यूहबद्ध प्रस्तुत है
जानता है : हार चुके हैं हम
जुए में अपना सूर्य !
हमारे सीमान्त की रक्त-ध्वजा
उखाड़ने की चेष्टाएं कर रहा है वह !
अनिश्चय-पाश में बाँधी जा रही है हमारी सुबह
इस से पूर्व कि मैं
सहानुभूति में झुके हुए
तुम्हारे मस्तकों की अर्थवता को शब्द दूँ
आगे बढ़ो और अपने तेज दाँतों से
मेरा सीना चाक कर डालो !
और मेरे कलेजे को आस्तीनों से रगड़ कर
अपने हाथ हवा में तान दो !
इनसे एक नई सुबह दिग्भ्रमित होने से बच जाएगी
न सही सीमान्त की रक्त-ध्वजा
आस्तीन का लहू तो है !
आस्तीन का लहू :
जिसे आने वाली पीढ़ियाँ
(इतिहास मान कर ही सही )
नए अर्थों और नए संदर्भॊं में
जीने-समझने की कोशिश करेंगी !
(1965)