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आस / मुनेश्वर ‘शमन’
Kavita Kosh से
नित भोरे बुझय झिलमिल तारा-
फिन साँझ पहर उग आवे हे।
ई देख जगल जीअय के ललक-
बिसवास गेल बढ़ जीवन के।।
हे रहल रीत कायरता के –
आवल भय से घबरावे हे।
बस अरज-अरज के हार हियाँ-
हारल मन के समझावे हे।
लेकिन पतझड़ में भी भौंरा-
संदेसा दे हइ गुंजन के।।
अब उग अइलय जियरा में सच,
संसय के धीरज टूट गेलय।
कुछ दु:ख जन्मल तऽ नया, मुदा
रहिये में केतना छूट गेलय।
ठहरल हे कब तक लहकल दिन
धूर-फिर आवय रितु सावन के।।
हम मन से ललसा के बिखरल
चुन रहलूँ मोतियन, हो तन्मय।
जिनगी के गीत के फिर से हम,
सजबयहूँ दे-दे के सुर-लय।
हम सीख लेलूँ हे, दीवा जरइने
रक्खय ले अब आँगन के।।