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आस में हूँ / विमल कुमार
Kavita Kosh से
अब सारे लालटेन बुझ गए हैं
इसलिए मैं कोई लालटेन नहीं जलाता हूँ
चाहे पहाड़ पर या अपने घर में
बहुत धुआँ निकलता है इससे
कई बार तो घर भी जला है
काली हो गई है कोठरी
अब तो मैं नई रोशनी की तलाश में हूँ
दुनिया बदलती है गर
तो कविता भी बदले
इसी आस में हूँ।