भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आह! मीना कुमारी / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
मह्जूर, ना-मुराद, फ़सुर्दा, अलम-ज़दा
तन्हा तू अपनी ज़ीस्त के दिन काटती रही
दो गाम तेरा साथ ज़माना न दे सका
तल्ख़ी ग़मों की ज़ख्म़े-जिगर चाटती रही
कौसर में वो धुला हुआ चेहरा नहीं रहा
वो वांकपन, वो अबरुए-ख़मदार मिट गये
वो सादगी, वो सोज़ में डूबी हुई हँसी
वो चांद सी जवीन, वो रुख्स़ार मिट गये
पानी थी तुझ को और भी शुहरत जहान में
तेरे रहे-अदम से गुज़रने के दिन न थे
करनी थीं तय कुछ और तरक्की की मंज़िलें
ऐ 'महजबीं` अभी तेरे मरने के दिन न थे