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आहट की दरकार / प्रतिमा त्रिपाठी
Kavita Kosh से
एक आहट की दरकार है मुझे
मन का साँकल खटकाओ
आओ ! भीतर ..चले आओ !
अपनी नीयत टांग दो दालान की खूंटी पर
लगाव की ऊँगली थामे और भीतर चले आओ !
अगले कमरे में अँधेरे में अपनी आँखें गुमाँ दो
नज़र से कुछ टटोलो मत..
नब्ज़ की चाप पे बढ़ते चले आओ !
बारिशों से अँटा पड़ा है आँगन
देह की मिट्टी उतार दो वहीँ कोने में
जमीं से ज़रा उपर उठ जाओ
कस्तूरी के मानिन्द गंध है रूह की
माहौल में बिखरने दो !
अपना पीछा करो ..आओ ! आओ..
अपने भीतर चले आओ !