आह्वान / विमलेश शर्मा
सुनो मेरी आत्मजा,
सहोदरा, सखी, प्रिया, प्रिये, मेरी जाँ !
तुम जब इस जंगल के बियाबान में उतरोगी
तब बहुत-सी बातें होंगी
जिन्हें तुम कह सकती हो
विचित्र, अनहोनी, बकैती या ऊलजलूल
हिम्मत रखना, रहना अटल
और अनसुना कर देना उस बतकही को
जो ख़ारिज करती हैं तुम्हारी निष्पाप चेतना को।
तुम मचलना बारिश की बूँदों पर
मुस्कराहट उलटना
अपने ही भीतर के आवेग पर
और धता बताना ज़माने के सुनामी ज्वार को
अजब रवायत है
तुम जितना बढ़ोगी
जितना हँसोगी
जितना सहज होओगी
यह दुनिया असहज होगी
अजीब तिलस्म है
कि तुम्हारा बढ़ना
चौपालों पर तुम्हारा ज़िक्र बढ़ा देगा
पर सौं मेरी ,तुम बस चौंकना!
यूँ तो
बढ़ना, घटना सिर्फ़ व्याख्याएँ ही जीवन की
काल, विचारधारा और दृष्टि सापेक्ष
पर तुम बहते रहना सतत
स्वैरिणी की ही तरह
वैपरीत्य की पगडंडी पर तुम थिर रहना
विश्वास का सलीक़ा सीखना
मानना बात मेरी कि
यह दुनिया उजास वाले जुगनुओं का भी ज़ख़ीरा है
ये जुगनु चुपचाप आ खड़े होते हैं
सहयोगी आत्माओं की तरह
उदास गलियों में
कभी माथे पर थपकी देते
कभी दोस्त की गोद बन
तो कभी नितांत अजान भाव बन
भरोसा रखना कि
दुनिया फिर भी ख़ूबसूरत है
उसी चमकीले रूपक की तरह
जिसे हम तुम जन्नत कहा करते हैं!
तुम इंच-इंच बढ़ना
लिखना प्रेम वसंत की ही तरह
वक़्त की शाख़ों पर
अपने विचारों को इतना पोषित करना
कि जब कुतर्क तुम्हारी अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगाए
तब उन्हें हर्फ़ों से सभ्यता का नया पाठ पढ़ा सको
हिम्मत रखना
अपनी कुक्षि को भरना ऐसे भावों से
कि जो संतंति जनमें
वो वास्तविक मानव हो
वो तुमसी हो
वो तुम्हारी आत्मा की उजली फाँक हो
वो तुम्हारी सहोदरा हो!