आह रे,वह अधीर यौवन / जयशंकर प्रसाद
आह रे, वह अधीर यौवन !
मत्त-मारुत पर चढ़ उद्भ्रांत ,
बरसने ज्यों मदिरा अश्रांत-
सिंधु वेला-सी घन मंडली,
अखिल किरणों को ढँककर चली,
भावना के निस्सीम गगन,
बुद्धि-चपला का क्षण –नर्तन-
चूमने को अपना जीवन ,
चला था वह अधीर यौवन!
आह रे, वह अधीर यौवन !
अधर में वह अधरों की प्यास ,
नयन में दर्शन का विश्वास ,
धमनियों में आलिन्गनमयी –
वेदना लिये व्यथाएँ नयी ,
टूटते जिससे सब बंधन ,
सरस सीकर से जीवन-कन,
बिखर भर देते अखिल भुवन,
वही पागल अधीर यौवन !
आह रे, वह अधीर यौवन !
मधुर जीवन के पूर्ण विकास,
विश्व-मधु-ऋतु के कुसुम-विकास,
ठहर, भर आँखों देख नयी-
भूमिका अपनी रंगमयी,
अखिल की लघुता आई बन –
समय का सुन्दर वातायन,
देखने को अदृष्ट नर्तन .
अरे अभिलाषा के यौवन!
आह रे, वह अधीर यौवन !!