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आ उठ चल, बाहर जीवन है / मानोशी
Kavita Kosh से
जीवन विषाद नहीं है, सुख है,
है मन का यह भ्रम, जो दुख है,
मधुर स्मृति से आलिंगन-बद्ध
बैठ राह रोता मूरख है|
डर कर काँप रहा यह तन तर,
इक बिजली के कंपन ही से,
करुणा छोड़ स्वयं अपने पर,
आ उठ चल, बाहर जीवन है।
चल पथरीले रस्ते पर से,
धूप कड़ी गुज़रती सर से,
ना डरना तू कठिन प्रहर से,
छाँव लिये आगे तरुवर है।
द्वार-द्वार भटकता पागल
छोटी नाव, डराता सागर,
माँगे नीर, मिले लवण-जल
हाथ मे निज मीठा जल है।
खड़ी निराशा है मुँह बाये,
घेरे तत्पर अवसर पाये
दिखे अन्धेरों के साये, पर
गुफ़ा के अन्तिम द्वार किरण है।
आ उठ चल, बाहर जीवन है।