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आ गए फिर चारणों के दिन / उमाकांत मालवीय
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आ गए फिर चारणों के दिन,
लौट आए चारणों के दिन ।
सिर धुने चाहे गिरा पछताय
फूल क्या, सौगन्ध भी असहाय
तीर चुन तूणीर से गिन-गिन ।
‘मत्स्य भेदन’ तेल पर है दृष्टि
एक फिसलन की अनोखी सृष्टि
बीन पर लेती लहर नागिन ।
ध्वजाओं की कोर्निश दरबार
क्रान्तियाँ कर ज़ोर हाथ पसार
दीन बन टेरें, नहीं मुमकिन ।
क़सीदे औ’ चमकदार प्रशस्ति
सिर्फ़ एकोऽहं द्वितीयो नास्ति
नहीं सम्भव, सिंह तोड़े तृण ।