भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आ बीमारी नीं है / संजय आचार्य वरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

म्है नीं जाणूं
के तळाव रै सड्योडै़
अर गिन्दलै पांणी में
की बखत
लैरावतै रैवण सूं
म्हांनै क्यूं लागै
के जाणै सौ कीं पा लियौ हुवै
अर ठा नीं क्यूं
इयां लागै
के बिरखा में भीज’र
म्हे कर रह्या हां निभाव
माइतां री
किणी परम्परा रौ।
अबै सायत आप जाणसौ
के आ कोई
दिमागी बीमारी है
नई सा आप गलत जाणयो
म्हे पूरी सावचेती में करां आ बात
क्यूं के म्हे करणौ चावां
बिरखा अर तळाव रै
हुवणै ने सारयक।
आप नीं मानौला
के म्हे तळाव रै तळै में
बार बार जाय’र सोधा बो
जकौ बठै नीं है
अर हुय भी नीं सकै।
या बिरखा में भीज’र
म्हनै बो आनन्द आवै
जकौ स्टैनलैस स्टील रै
फव्वारै में
आवणौ चाहिजै
बो ही’ज फव्वारौ
जकै ने आपरै
न्हावण घर में लगावण री हिम्मत
नीं जुटा पायौ है
म्हां मां सूं
कोई भी ओजूं तांई
आप ठीक कैवो
के सूगळै पाणी सूं
खाज खुजळी
पचिया फोड़ा हुय सकै
अर तळाब मे तो
किण ‘चीज’ री कमी हुवै?
आप री बात सीर माथै
के घर रौ पाणी हुवै
सांतरौ, निरमळ
अर निराग
साथै ही मीठौ भी
पण हर रोज नीं तो
कदे कदास
तळाव अर बिरखा
बण जावै
म्हांरी कमजोरी।
अरदास है
बुरौ ना मान्या
म्हे बिरखा में भीजसां
तळाब में न्हांसा
बस।