आ सकी बहार नहीं / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
आ गया वसन्त किन्तु आ सकी बहार नहीं,
रूप है रंग है न गन्ध है गुलाब में।
चारों ओर भ्रष्टाचार का है बोलबाला यहाँ,
गांधी जी का रामराज्य बंद है किताब में।।
न्याय की जो मांग करता है मजलूम कोई,
लाठी-गोलियाँ ही उसे मिलतीं जवाब में।
कर्णधार देश के गुलाम कुर्सियों के बने,
डूबी हुई आज़ादी की शाम है खराब में।।
सींच गए देश के शहीद जिसे शोणित से,
माली ख़ुद आज उसी बाग़ को उजाड़ते।
दे प्राण पूर्वजोंने सुदृढ़ बनाया जिसे,
नौनिहाल नींव उसी दुर्ग की उखाड़ते।।
रूग्ण है स्वतंत्रता की देवी दे कुपथ्य उसे,
हालत को और उपचारक बिगाड़ते।
दस्यु बन बैठे सभी डोली के सिपाही आज,
बेटे ख़ुद खींच माँ के दामन को फाड़ते।।
बेच दिया दौलत के हाथों निज लेखनी को,
काव्य के प्रणेता लक्ष्य भूले वाहवाही में।
भारी संकटों का बोझ ढोते दीन-हीन सभी,
लीन हैं समस्त दरबारी मनचाही में।।
भाई पर भाई की तनी है तलवार आज,
देते सहयोग सभी देश की तबाही में।
ग्रस्त है समाज बाहुपाश में दरिद्रता के,
मस्त सभी नेता सुरा-सुन्दरी-सुराही में।।
प्याले पर प्याले कहीं रोटियों केलाले कहीं,
वैभव-विलास कहीं लाश बेक़फ़न है।
होगा उस देश का भविष्य क्या विचारो; जहाँ,
यौवन है नंगा और भूखा बचपन है।।
संज्ञा देशभक्ति की मिली है स्वार्थ साधना को,
कुर्सी का ही चिन्तन है मान है मनन है।
होता अभिषेक नित्य अनय-अनीति का है,
हो चुका नितांत न्यायनीति का हनन है।।