भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इकलौता डर / सबीर हका
Kavita Kosh से
जब मैं मरूँगा
अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊँगा
अपनी क़ब्र को भर दूँगा
उन लोगों की तस्वीरों से जिनसे मैंने प्यार किया।
मेर नए घर में कोई जगह नहीं होगी
भविष्य के प्रति डर के लिए।
मैं लेटा रहूँगा। मैं सिगरेट सुलगाऊँगा
और रोऊँगा उन तमाम औरतों को याद कर
जिन्हें मैं गले लगाना चाहता था।
इन सारी प्रसन्नताओं के बीच भी
एक डर बचा रहता है :
कि एक रोज़, भोरे-भोर,
कोई कंधा झिंझोड़कर जगाएगा मुझे और बोलेगा --
'अबे उठ जा सबीर, काम पे चलना है।'
अँग्रेज़ी से अनुवाद -- गीत चतुर्वेदी