इक्कीसवीं सदी में चश्मा / अशोक कुमार
वह चश्मों का ही युग था
कि जब से ईजाद हुए थे चश्मे
खूब बनने लगे थे
पिछली सदियों में बने थे चश्मे
और इस सदी में धड़ल्ले से बिक रहे थे
अब हर आदमी के पास एक चश्मा था
और हर आदमी को एक नाक थी
चश्मे नाक ऊँची कर देते थे
या चश्मे थे इसलिये नाक ऊँची थी
कह पाना मुश्किल था
अच्छा था
अब कोई किसी को चश्मल्लू नहीं कहता था
और कोई बात कहने के पहले
चश्मा अच्छी तरह से पोंछ लेता था
जब कोई रोता अब
चश्मे पोंछ लेता था
और उसकी रुदन और असरदार हो जाती थी
ज़रूरी हो गया था
टेलिवीजन पर खबरों को पढ़ने के लिये
चश्मा लगा लेना
क्योंकि ख़बर बांचते आदमी ने भी चश्मे पहन रखे थे
और ख़बर बांचती स्त्री के होठों पर एक शातिर मुस्कान थी
यह कोई चमत्कार नहीं था इस युग का
कि युग-धर्म समूहों में बँटा था
और सबके अपने चश्मे थे
और फूटते थे चश्मे
तो तुरत स्थानापन्न शीशे उपलब्ध थे
चमत्कार सिर्फ़ यह था
कि उजले साफ शीशों से
लोग अपने मनपसंद रंग देख रहे थे
मौजूं था कहना
कि अब जो थे वंचित चश्मों से
उनके पास किताबें न थीं
या उन्होंने उन्हें किताबों पर भूल से रख छोड़े थे।