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इच्छाओं की कोई उम्र नहीं होती / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
इच्छाओं की कोई उम्र नहीं होती
ये इच्छाएँ थीं
कि एक बूढ़ा
पूरी की पूरी जवान सदी के विरुद्ध
अपनी हज़ार बाहों के साथ उठ खड़ा होता है
और उसकी चूलें हिला डालता है
ये भी इच्छाएँ थीं
कि तीन व्यक्ति तिरंगे-सा लहराने लगते हैं
करोड़ों हाथ थाम लेते हैं उन्हें
और मिलकर उखाड़ फेंकते हैं
हिलती हुई सदी को सात समंदर पार
ये इच्छाएँ ही थीं
कि एक आदमी अपनी सूखी हडि्डयों को
लहू में डूबोकर लिखता है
श्रम-द्वंद्व-भौतिकता
और विचारों की आधी दुनिया
लाल हो जाती है
इच्छाओं की कोई उम्र नहीं होती
अगर विवेक की डांडी टूटी न हो
बाँहों की मछलियाँ गतिमान हों
तो खेई जा सकती है कभी-भी
इच्छाओं की नौका
अंधेरे की लहरों के पार।