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इतनी कसी गई उसकी डोर / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
जो नदी होती तो बह जाती
जाने-अनजाने रास्तों से
गुनगुनाते हुए मन ही मन
चिड़िया होती तो सारा आकाश
जैसे बाँध अपनी हथेली
उड़ा करती चहकती-बहकती
जो तितली होती तो समेट
अपने अन्दर सारे के सारे रंग
बसेरा करती हर डाल पर
पर उसने कहाँ सीखा था बहना
वो तो बँधती ही गई
इतनी कसी गई उसकी डोर
ऐसे चमकाया गया माँजा
कि उड़ती ही रही ठिकानों के बीच
बहुत उड़ी
हवाओं के दबाव पर
फिर भी फड़फड़ाती ही रही
अपनी ख़ुद की एक पूरी
उड़ान के लिए।