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इतिहास की बेड़ी / अनीता कपूर
Kavita Kosh से
मैं कुछ नहीं सोचती
कुछ याद भी नहीं करती
सिर्फ मेरी भटकती उँगलियाँ
अनजाने में
सितार के तार छेड़ती हैं
एक-एक तार में तुम
झंकार उठते हो
मेरे संगीत तुम कब से
मुझमे छिपे हो
मैं चौंकती हूँ
उँगलियों की धृष्टता को देखती हूँ
मैं तुम्हें एक और इतिहास
नहीं बनाना चाहती
तुम एक नशीला संगीत हों
तुम्हारी लय को मैं इतिहास की
वेड़ी में गूँथना नहीं चाहती
मैं तुम्हें आज और कल भी
समूचा ही पाना चाहती हूँ
तुम्हारा आना मुझको
पूरा एक सितार बना देता है