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इधर तोपते हैं / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
इधर तोपते हैं, उधर झाँपते हैं
सड़ा ठाट ही है! वृथा ढाँपते हैं!
इधर कुछ घटाकर, उधर कुछ बढ़ाकर
गुणा क्या करेंगे? वह क्या नापते हैं?
जमीं ही ग़लत है महल क्या टिकेगा!
क़िला है तो यह! जीभ क्या जाँपते हैं?
करेंगे दवा मेरी जूड़ी की वह क्या?
मेरे पास आते जो ख़ुद काँपते हैं!
सराब है; न चेते अगर 'रुद्र' तो फिर
मरेंगे, जिधर जा रहे हाँपते हैं!