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इन्तज़ार / सुभाष राय
Kavita Kosh से
मैं जहाँ खड़ा हूँ
देर तक खड़ा रहना मुश्किल है
सिर पर आग बरसाती धूप
पाँवों के नीचे उबलती रेत
आस-पास कुछ पेड़ हैं सिर्फ़
लपटों की तरह काँपते हुए और धुआँ होते हुए
धरती पर झुका आकाश सिमट रहा है
लाल क्षितिज मेरे देखते-देखते नीला पड़ा
और अब काला पड़ने लगा है
मैं जहाँ खड़ा हूँ
मुझसे पहले भी यहाँ आए होंगे कुछ लोग
रेत में धँसी खोपिड़यों के निशान हैं यहाँ-वहाँ
पसलियाँ और चटखे हुए दाँत बिखरे हैं इधर-उधर
यहाँ कोई और आ सकता है किसी भी क्षण
मेरी ही तरह और लोग भी छूट गए होंगे अपने जुलूसों से
मिट जाने या फिर से जुलूस बन जाने तक
मैं यहीं खड़ा रहूँगा, इन्तज़ार करूँगा