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इन दिनों मरा करता हूँ.. / महाभूत चन्दन राय

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इन दिनों मरा करता हूँ ..
जी मुझे मरने का शौक़ है !
हाँ जी ! मरने का ’हाजी’ हूँ
साली ! मौत चीज़ ही ऐसी है..
तबियत ठीक करता हूँ लिखने से .

जितना जला हूँ.. कम जला हूँ
सूरज को बीमार देखा जब ..
लिखने की चाहत बना डाली ,
वो फतन राख होने का मज़ा,
मैने सीखा है मरघट में मुस्कराती चिताओं से !

बावस्ता है मुझे सड़क पर बिछी ज़िन्दगी की सौगात से
पहियों सी घिसती दौड़ती ज़िन्दगी
सड़क जहाँ से ठीक होते है हमारी रूह के पंचर
जब भी मिला “आमीन” पंचर वाले से
मैने उसकी जेब से एक लावा लिया...पी लिया !

मिटटी में पड़े पंचर वाले से पूछा…
क्यों बे ! धूप कितनी तेज़ है ?
गर्मी नहीं लगती क्या ??
घिसे टायर की पंचर-ट्यूब-सा मिटटी में लदा-पदा
मेरे नाजायज़ से जीने का फिर से “वो एक यमराज”
अपनी आँखों से बर्फ़ उड़ेल रहा था
“ 48 डिग्री की बर्फ़”
साहब ! क्यों मज़ाक करते हैं ?......बर्फ़ पड़ रही है,
मैने मरकर उसका इस्तकबाल किया…
और 48 डिग्री की बर्फ़ मली अपनी लाश पर !

ज़िन्दा होकर मैने बगल में देखा
एक सनकी पंचर वाले का वफ़ादार कुता
वो अन-फ़िल्टर्ड पानी पी रहा था
जिसमे धुल रही थी हमारे पहियों की गन्द
मैने उसका सजदा किया आँख में बची
आख़िरी दो बूँदों से
आमीन ! ज़ख़्मों के पंचर वाले  !

आमीन ! हमारे घावों का पंचर निरस्त्रीकरण है
वफ़ादार होना आख़िरकार कुता होना ही तो है
यही मौक़ा था शर्म से ख़ाक होने का
मै राख हुआ
घर तक पहुँचा अंगारों की बन्द बोरी में
चेहरा फिर से आईने में देखा
रोया..रोया..कह रहा हूँ न ख़ूब रोया
देर तक देखा मै कैसा लगता हूँ रोते हुए
क़लम उठाई
अपना चेहरा फिर से काला किया
मै एक धोखेबाज़ था आईने में भी

मै रिक्शेवालों से दुनिया में सबसे ज़्यादा डरता हूँ
उनसे मिलना अपने पुनर्जन्मों का विनाश करना है
उनका पसीना मेरी आत्मा का जोंक है
न मरने से काम चलता है
न जीने से
वो ही तो…. विष्णु है… विराट विष्णु
उनके पैरों में घूमती पृथ्वी
मेरी हार का कुरुक्षेत्र है
दर्द के तपते तवे पर भुनता आदमी
कैसे मुस्करा सकता है
कैरियर में रख कर सुना करता है ….रेडियो पर विविध भारती
वो शैलेन्द्र के गीतों पर भूख को थपकियों से सुला सकता है !

मै एकलव्य हूँ उस रिक्शावाले का
पर वफ़ादार नहीं
उसके पास एक कविता है
"अरे बाबू जी कल कभी तो आएगा
छुट्टे नहीं मुआ मेरी क़िस्मत हो गई
आप याद तो रखेंगे....कहेंगे..
यार किसी दिलदार रिक्शेवाले से पाला पड़ा था"
हाय ! रिक्शेवाले तूने मुझे जोगी बना डाला !


आह ! ख़ुदा मेरे लिए मौत से जुदा कोई चीज़ बना
जब मेरी आत्मा के पिघलने से भी काम न चले
तू ही बता क्या करूँ .. मै कमबख़त..?
एक काम कर " दिलदार रिक्शेवाला ही बना दे"
सहर मिले की….शहर में एक ही तो सरपरस्त है
अपने जिस्म की माल-गाड़ी पर ढोया करूँ
तुम्हारे आँख की कफ़स में क़ैद दुखों की काइयाँ
मुझे एक दफ़ा मरना ही है तुम्हारा कुली होकर !

ये उनके हिजाब है
आज मरघट को मयघट हो जाने दे
मै कभी जो निकलू "भिखारी" बन कर
आप से दरख़्वास्त है
आप अपने दुःख अता करें
मै एक पियक्कड़ हूँ दुःख की शराब का
और मरघट मेरी पियक्कड़-पार्टी
दुःख एक चखना है चटपटा !

वो अजीब-सा शख़्स है खोमचे-वाला
"मेरी आत्मा बिकाऊ है" -- यह कहकर
तीसरे पटियाला पेग पर उसने रेहड़ी पर
अपनी आत्मा निकाल कर रख दी थी
रेहड़ी हमारी आस्थाओं का धाम है
हमने चौथा पेग बनाया काकटेल का
पूरा 503 या 505 बीड़ी का बण्डल फूँका
पढ़ा -- हमारा ट्रेडमार्क देख ले..हम असली हैं
हम नकली हुए फिर से
हमने ख़ूब ग़ालियाँ बकीं
खोमचे वाले की जेब टटोली
अपनी नसीब के पाँच रूपए हक़ से चुराए
आख़िरकर हम मौक़ापरस्त लोग हैं
उसकी जेब में बीमार पड़ी उसकी माँ को छोड़कर
हम भाग खड़े हुए
जैसे उसकी बीबी भाग गई थी अपने यार के साथ !

हमने उसकी आँख में वो कहानी भी पढ़ी
कि उसके लाड़ले के दिल में छेद है
और पढ़ कर हमने अपने दिल पे झाड़ू फेर ली
हम उसके घर कभी नहीं गए
बस सरकार पहुँची थी बुलडोजर लेकर
हाँ, जब कभी वो ज़िन्दा था
उसके पेट ने किया था रोटी के लिए अवैध निर्माण
मैने तभी जाना था यारों….
पृथ्वी “ब्रह्मदेव” का नहीं “सरकार” के बाप का माल है  !

वो बुढिया अजीब-सी बेईमान है
हर बात पे दुआएँ देती है जो
मेरे महँगे से ग़म से ले लेती है
एक सस्ती-सी मुस्कराहट में
वो एक बेसहारा-सी विधवा मुस्कराहट है
उसने जिस दिन खोल कर दिखाई अपनी आत्मा पर उकेरी सलवटें
मुझे याद है कि मै आदमी होते-होते बचा था
उसके पास मुस्कराने की अजीब सी तसल्ली है
सौ मुफ़्त-सी दुआएँ है हमारे "बेटा" हो जाने की
और हमारे पास है एक ओछा "विधवा आश्रम" !

"प्यारी माँ" तुम नहीं अब हमारे काम की
एक पुरानी बदसूरत झुर्रीदार तुम
मेरे घर में अच्छी नहीं लगती
घर हो जाता है तुम सा बूढ़ा बीमार झुर्रीदार
सुन माँ तू जाते वक़्त ले जाना
अपनी लोरियाँ-फोरियाँ,
तुम्हारे स्तन से पिया दूध .
तुम्हारी गोद, लाड़-दुलार, तुम्हारी थपकियाँ,
मैंने गठरी बाँध दी है !
"ममता" और "कोख" की भी तू तय कर ले
"एक भुगतान राशि"
हम नए से साफ़-सुथरे चमकदार लोग है
"सोशल स्टेटस के तमीजदार "
हमें नापसन्द है घर में कोई भी पुरानी चीज़
तुम समझती हो न
ओ माँ तुम कितनी अच्छी हो
"शुक्रिया"

इन दिनों माँ चाय बनाती है चौराहे पर
मेरा बाप एक पान वाला पनवाड़ी है
जिसे ईमानदार होने की ख़तरनाक बीमारी है
सो इन दिनों घर के चूल्हे पर पकती हैं
“आदर्श-उसूलों की सड़ी रोटियाँ “
मुसलसल भूख से रोज़ मुलाकात होती है !

इन दिनों रोज़ मै तारे गिनकर ही सो जाता हूँ
जब धोखा देती है भूख से काँपती पसलियाँ
मै पेट की आँच पानी से बुझाता हूँ !
मुझे बेहद सख़्तजान नफ़रत है अपने बाप से
जो अपने बच्चों की ख़ातिर अपना जमीर नहीं बेच सकता
मैंने बेच दी है अपनी क़िताबें अपनी माँ के लिए
मै उसकी तरह अपनी अस्थियाँ दान करने वाला दधिची नहीं हूँ
इन दिनों बेईमान होने का हुनर खोजता हूँ
अपने इरादों की कालाबाज़ारी का ट्यूशन लेता हूँ
इन दिनों पूरा तैयार हूँ आपके पैर धोकर पीने के लिए
मुझे एक दफ़ा फुलानी है अपने बाप की छाती
एक दफ़ा माँ की दुआओं को मुस्कराता देखना है

मगर…. एक श्रवण अब तक ज़िन्दा है मेरे भीतर
नहीं मिटता अन्तस से अच्छाई का जरासीम
मेरे बाप का सत्यवादी "अनुवांशिक गुण"
सर उठाता है हर बार पूरे इनकार के साथ
तुम्हारी पोली चलित्तरी चालबाज़ चुहलता के ख़िलाफ़
मै अपना आत्मसम्मान फिर से आज बचाता हूँ
इन दिनों मरना ही अच्छा है !