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इमारत / निर्मला गर्ग
Kavita Kosh से
सुबह उठती हूँ तो बरामदे रेत से भरे मिलते हैं
खासकर रसोई के बाहरवाला
घर के सामने एक पन्द्रह मँज़िला इमारत बन रही है
काम धीरे- धीरे हो रहा है
यहाँ आई थी तब एक भी मज़दूर नहीं दिखता था
अब चार-पाँच होते हैं तसले में रेत-ईंट ढोते हुए
जो यहाँ रहने आएँगे
वे इस इमारत को बनता हुआ नहीं देख पाएँगे
उन्हें पता नहीं चलेगा कि रात में यह इमारत
आत्महीनता की खुली पीठ लगती है
सुबह बातचीत सदिच्छाओं से भरी ।