भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इश्क की महक / रंजना भाटिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज फिर से मेरी जान पर बन आई है
बाँसुरी किसने फिर यमुना के तीर पर बजाई है


खिलने लगा है फिर से मेरे चेहरे का नूर
फिर से कोई तस्वीर दिल के आईने में उतर आई है

पिघलने लगा है फिर से दिल का कोई सर्द कोना
कोई याद फिर मोहब्बत का लिबास पहन आई है

महकने लगा है फिर से कोई टेसू का फूल
यह ख़ुश्बू शायद किसी ख़्याल से आई है

लिखते लिखते लफ्ज़ बन गये हैं अफ़साना
उनकी आँखो ने कुछ राज़ की बात यूँ बताई है

मत देख अब यूँ निगाहे बचा के मुझको तू
इश्क़ की महक कब छिपाने से छिप पाई है