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इसी के बीच कहीं / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
मेरे बैठने और तुम्हारे खड़े होने में
जब कोई तर्क नहीं है
तो चलने वाले हर आदमी की चाल से
अन्दाज़ा लगाया जा सकता है
कि वह चलने के नाम पर
चलते हुए दिखाई देने का महज़ धोखा है
तुमने कभी सोचा है
एक तरफ़ कविता है
दूसरी तरफ़ काल है
एक तरफ़ रस्सी है काल की
दूसरी तरफ़ उस पर मेरे मन के नाचने की ताल है
डूबे हुए मन के ताल की
यह जो रस्सी है काल की
और मन के नाचने की ताल है ताल की
कविता इसी के बीच कहीं
लय के खेत में उगती है