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इसे भी जीना कहते हैं / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
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पपीहा 'पी-पी' करता रहा
कोइलिया 'कू-कू' करती रही
आग मेरे हीँ प्राणों की
वहाँ भी धू-धू करती रही
आम की डालें बौराईं
प्राण के मधुवन जलते रहे
पपीहे के स्वर भी थक गए
पाँव तो मेरे चलते रहे
इसे भी जीना कहते हैं
नीम के नीचे पलते रहे