इस निस्तब्ध गोधूलि में / समीर ताँती
इस निस्तब्ध गोधूलि में
कहाँ से उड़कर आई,
ओ गंगाचील!
किस सुदूर सागर की परीकथा
डैनों पर उठाकर लाई
याद है ?
उस निर्जन द्वीप के कलेजे में
हूक-सी उठती रात
मिली थी क्या?
जो तुम्हारी ओर उठाये था
याचक ओठों की वंशी
" ओ गंगाचील, बोल"
नीले चँदोवे के नीचे
वह छोटा-सा बच्चा
अब भी खेल रहा है न?
और इस किनारे से उस किनारे तक
तैरती पाल वाली नावों की पाँतें ;
अब कहाँ खोज पाऊँगा
प्रेम-कातर प्रिया को
जिसके बदन से लिपट खेल रही थी
शंख और सीपियों की जोत।
शैवाल भरे महल को लौटती मछली की आँख में
ठहरा हुआ सूरज
मिलेगा क्या मुझे,
जो एक टुकड़ा उपजाऊ ज़मीन को
चूमकर मुझे दिखा दे ?
ओ गंगीचील, बोल एक बार
किसके सरल चित्त को भर
उफनी है चाँदी की चाँदनी?
समीर ताँती की कविता : एइ निजम गोधूलि का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित