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ई फागुन के रात / कुमार संभव
Kavita Kosh से
कटवां नै कटै, ई फागुन के रात।
असकल्लोॅ में कानी केॅ, रात बिताय छियै हम्में,
नाम लिखी केॅ तोरोॅ, मिटाबै छियै हम्में।
सांझै के खोसलोॅ गजरा, बार-बार संभारै छियै हम्में,
रुसलोॅ छोॅ तोंय झूठे के पिया, लैकेॅ बेबातोॅ के बात,
कटवां नै कटै, ई फागुन के रात।
रात-रात भर गमकलै रातोॅ के रानी
पढ़ि-पढ़ि केॅ हमरेॅ पिहानी,
झूमै गेंदा, जूही फूल चमेली
हाँसै देखी हमरा असकल्ली,
की कहियों तोरा हम्में पिया
कचनारें करै कभात,
कटवां नै कटै, ई फागुन के रात।
तोंय भले ही छिपी जा पिया
सरंगोॅ के चान तेॅ चमकतैं रहलै,
तोरोॅ रूप धरि-धरि मनमोहन
संग-संग हमरे हाँसै खेलै,
आँख मिचौनी के ई अजबे खेला
कहि-कहि पल छिन खेलै झात
कटवां न कटै, ई फागुन के रात।